वो चांद सा रौशन चेहरा

उससे मुखातिब होने से पहले मैंने सिर्फ फिल्मी गानों में नायिकाओं की तारीफ सुनी थी... “चांद सा रौशन चेहरा...जुल्फों का रंग सुनहरा...” कैसा होता होगा...यह न तो मालूम था...और ना समझ में आता...कभी देखने को मिलेगा यह भी नहीं पता था...दाखिले से लेकर कॉलेज छोड़ने तक पूरी पढ़ाई को-एड ही रही...लेकिन कोई भी लड़की जमी नहीं...जो थोड़ी बहुत ठीक लगी उसका पहले से ही अफेयर रहा...और जो खाली थीं...उन्हें बहन जी का रुतबा हासिल था...मजाल कि उन्हें कोई नजर भर देख ले...(दरअसल उनकी नजरें कभी ऊपर उठी ही नहीं)उन दिनों एक्स्ट्रा क्लासेज चल रहे थे...मेरी बुआ के यहां एक फंक्शन था...इसलिए छोड़कर जाना पड़ा...तब मैं बीएससी पार्ट टू में था...और बार बार बीमार होने से तंग आ गया था...हालांकि उस वक्त तबीयत थोड़ी बेहतर हो गयी थी...फिर भी इम्तिहान ठीक से दे पाउंगा...यह भरोसा नहीं था...हर तरफ से दबाव झेल रहा था...कुछ घर से भी दबाव था... “बार बार बीमार पड़ रहे हो तो घर आ जाओ...जिंदगी रहेगी तो पढ़ाई-लिखाई होती रहेगी...” इम्तिहान सर पर था...घर से पैसे भी नहीं मांगता था...यों ही पैसे कोई दे गया तो ठीक...वरना...देखी जाएगी...जैसे जुमलों के सहारे जिंदगी चल रही थी...जहां तक दोस्तों की बात है तो...एक दो थे...लेकिन उनका भी मेरे से कहीं ज्यादा इस बात में इंटरेस्ट हुआ करता था कि जब तक वे “तुम्हारे पास चेंज है क्या?” की नौटंकी के साथ पॉकेट से पैसे निकालते...मैं कैंटीन का पेमेंट कर देता था...जानता था...पैसे मुझे ही देने हैं... हम तीनों में से एक ऐसा जोकर था कि हम हंसते हंसते परेशान हो जाया करते थे...पेमेंट के वक्त यही सोचता था चलो यह मनोरंजन कर है...क्योंकि न तो फिल्म देखने जाना होता था ना कहीं और...थ्योरी, प्रैक्टिकल और होम वर्क...इसके अलावा फुर्सत कहां...हम तीनों के अलावा तकरीबन सबकी कोई न कोई गर्लफ्रेंड थी...क्लास के दो लड़कों को छोड़ कर जिन्हें सभी लड़कियां भैया बोलती थीं...दोनों हमेशा बीजी रहते थे...बहनों के किसी न किसी काम में...सड़क से शुरू होने वाले एक लंबे चौड़े अहाते के एक कोने में बुआजी का बड़ा सा घर है...और दूसरी तरफ उससे सटे तीन मकान...जिसमें एक मकान एक प्रिंसिपल साहब का है...उनके एक तरफ एक बैंक मैनेजर और दूसरी तरफ एक डॉक्टर साहब का घर है...दरअसल तीनों लोग किराए पर कहीं एक ही मकान में रहते थे...कभी बातचीत के दौरान तीनों सहेलियों (तीनों की पत्नियों) प्रिंसपलाइन, डॉक्टराइन और मैनेजराइन ने तय किया
कि एक ही जगह जमीन लेकर मकान बनाये जाएं...और फिर ऐसा भव्य मकान बना कि उनका छत नहीं बल्कि किसी स्टेडियम का ग्राउंड नजर आता है...उसी इमारत का एक कोना बुआ जी के मकान से मिलता है...कभी रविंद्र नाथ टैगोर की एक किताब पढ़ी थी...बांसुरी...और उसके बाद इंडिया टुडे में हरिप्रसाद चौरसिया का इंटरव्यू पढ़ लिया...तभी से बांसुरी बजाने का चस्का लगा...और उसी से दोस्ती हो गयी...एक बार जब बजाना शुरू करता तो दुनिया की सारी बातें भूल जातीं...बांसुरी अकेलेपन की साथी तो थी...लेकिन उसकी भी सीमाएं रहीं...बीमारी की हालत में ज्यादा नहीं बजा पाता था...शाम का वक्त था...अगले दिन कार्यक्रम था...सब लोग तैयारियों में जुटे थे...तकरीबन सारे रिश्तेदार भी आ चुके थे...लेकिन मेरा मन नहीं लग रहा था...


मैंने अपनी बांसुरी उठायी...और छत पर चला गया... कहीं दीप जले कहीं दिल...फिल्म बीस साल बाद का यह गीत मेरे पसंदीदा गीतों में से था...इस गीत के बाद एक धुन और बजाया था कि पीछे से आवाज़ आयी... “दिल दीवाना वाला गाना बजाइए ना... ”मैंने उधर देखा भी नहीं...जिधर से आवाज़ आयी थी...और फरमाइशी धुन छेड़ दी...जब गीत की धुन पूरी हुई...तो तालियां बज रही थीं...मैंने देखा कि बगलवाली छत के कोने पर काफी लोग हैं...एक को छोड़ कर सभी छोटे छोटे बच्चे...जो उनमें बड़ा था वही एक चेहरा अपरिचित था...लेकिन क्षण भर में ही वो कैसे परिचित हो गया...पता ही नहीं चला...लगा जैसे स्नोव्हाइट एंड सेवेन ड्वार्फ्स जैसी कोई फिल्म देख रहा हूं...सांझ ढल चुकी थी...और चांद सामने खड़ा था...कोई बातचीत नहीं...बस! एक मीठी सी मुस्कान...“ आप? ”इससे ज्यादा मैं बोल ही नहीं पाया...“चंदा...आपके मोहल्ले की मैनेजराइन मेरी चाची हैं...आज ही आयी हूं”मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था...छत पर ही चांद का दीदार हो जाएगा...मैंने तो सोचा भी न था...“आप बहुत अच्छी बांसुरी बजाते हैं...काश!...”“थैंक्स!...आप कुछ बोल रही थीं...”“नहीं कुछ नहीं...बस”और वो चली गयी...पीछे पीछे बच्चे भी हो लिए...“काश! मेरे भी मुंह से निकला...यूं ही...”अगले दिन सुबह मैं बाहर ग्रील वाले बरामदे में अखबार के लिए गया...बुआ जी ने वहीं चाय भिजवा दी...आस पास पूरा कुदरती माहौल...दूर दूर तक घास के मैदान...जगह जगह पेड़...और उनके पीछे...पहाड़ों पर बिखरी धूप...ऐसे नजारे विरले ही देखने को मिलते हैं...तुझे चांद के बहाने देखूं...तू छत पर आजा गोरिये...यूं ही गुनगुना रहा था...तभी ग्रील के बाहर एक कंकड़ गिरा...ऊपर नजर गयी तो...चंदा खड़ी थी...मेरी जिंदगी में ऐसे लम्हे भी आएंगे सोचा भी न था...वैसे ही चुप...मुस्कुराते हुए...“अरे पानी गरम हो गया है...जाओ जल्दी से नहा लो...फिर नाश्ता कर लेना...” बुआजी की अंदर से आवाज आयी...यहां भूख किसे थी...चाय तो दो तीन चुस्की के बाद पी नहीं...कप भरी हुई थी...चांद मुखातिब भी था...करीब भी था...फिराक साहब की ये बातें हकीकत में नजर आ रही थीं...समझ में नहीं आ रहा था...उसे देखूं कि उससे बात करूं...बस चुपचाप देखता रहा...बुआजी कुछ और न समझें...इसलिए एक बार अंदर घूम लिया...चंदा वहीं...उसी तरह खड़ी मुस्कुरा रही थी...ये सब पहली बार (...और आखिरी बार) हो रहा था...कुछ समझ में नहीं आ रहा था...ऐसा लग रहा था...जैसे दोनों बातें कर रहे हों...नि:शब्द (एक फिल्म आने के बाद इस शब्द का अर्थ थोड़ा बदल गया है)...आखिर कब तक चाय पीते और अखबार पढ़ते...और वो भी ब्रश करती...दोनो लौट गये...अब मिलने का भी मन हो रहा था...लेकिन एक दूसरे के घर आना जाना नहीं हो सकता था...क्योंकि बुआजी और प्रिंसपलाइन में कभी किसी बात पर झगड़ा हो गया था...जिसको लेकर मैनेजराइन ने भी बातचीत बंद कर दी थीं...अब मिलने का उपाय नहीं समझ में आ रहा था...यही सोचते सोचते मैं छत पर चला गया...देखा... आग उधर भी लगी थी...चंदाजी ऊपर ही गोल गोल चक्कर लगा रही हैं...घूम घूम कर कुछ पढ़ रही थीं...मुझे लगा बोर्ड का इम्तिहान होने वाला है...उसी की तैयारी कर रही होंगी...उसने कुछ इशारा किया...और नीचे चली गयी...मुझे इशारे का मतलब तो नहीं समझ आया लेकिन लगा कुछ देर और हम एक दूसरे को देख तो पाएंगे ही...मैं भी नीचे चला आया...अब ऊपर जाने का कोई बहाना भी नहीं सूझ रहा था...एक बार फिर छत पर गया...देखा कि आज ब्रश की जगह दातून कर रही थी...शायद इसलिए कि देर तक छत पर रहा जा सके...अब मुझे कुछ उपाय करना था...मैं तो सुबह ही फ्रेश हो लिया था...फिर भी एक लोटा मांगा (ये पीतल या स्टील का एक बर्तन होता है...जिसमें पानी लेकर गांवों में लोग फ्रेश होने के लिए खेतों में जाया करते हैं)...और बोला, “आज थोड़ा खेतों की सैर करके आ रहे हैं”…घर के पीछे थोड़ी दूर पर एक पोखरा था...मैं उसी के किनारे बने एक पत्थर के बेंच पर बैठ गया...चंदा घूम घूम कर दातून कर रही थी...और मैं उसे देख रहा था...वो पोखरा भी उस वक्त दुनिया की सबसे खूबसूरत झील नजर जा रहा था...कुछ देर बाद मैं घर लौट आया...फिर जिस फंक्शन में शामिल होने आया था...उसमें कुछ देर हिस्सा लेकर मैं फिर शाम का इंतजार करने लगा...शाम हुई...वैसे ही मुलाकात भी हुई...रात हुई...अब सुबह का इंतजार था...ताकि पोखरे तक जा सकूं...ये सिलसिला करीब एक हफ्ते चला...सुबह होते ही पोखरे पर पहुंचना रूटीन बन गया था...लेकिन ऊपर देखा तो वो नहीं थी...बड़ी बेचैनी हुई...कहां गयी...कहीं बीमार तो नहीं...पूरे इलाके में कोई ऐसा नहीं था...जिससे उसके बारे में पूछ सकूं...कुछ देर बाद घर लौट आया...और दो तीन दिन बाद...कॉलेज वापस...हर वक्त उसका चेहरा आंखों के सामने नजर आता था...ऐसा लगता वो मिल जाएगी...लेकिन ऐसा होता कहां है...साल भर बाद...गर्ल्स हॉस्टल की एक लड़की...हैपी वैलेंटाइन डे बोलती हुई आयी...और हाथ में एक खत पकड़ा दी... “ये आपकी ही चिट्ठी है...मेरे रूम में पड़ी थी...”फिर मुझे याद आया कि बुआ के यहां से लौटने के कुछ ही दिन बाद कुछ लड़कों ने कॉलेज में आयी मेरे नाम एक चिट्ठी का जिक्र किया था...लेकिन वो देने को तभी राजी थे...जब मैं उन्हें फिल्म दिखाता...और पार्टी देता...लेकिन न तो मैंने पार्टी दी न उन्होंने चिट्ठी...
प्रिय शेखर,
आपकी बांसुरी सुनने के बाद मेरे मुंह से काश शब्द निकला था...आपको याद होगा...आपने पूछा भी था...लेकिन मैंने टाल दिया था...मैं सामने तो नहीं बोल पायी...लेकिन मैं अपनी बात आप तक पहुंचाना चाहती थी...इसलिए ये चिट्ठी लिख रही हूं...दरअसल, आपसे मिलने से कुछ ही दिन पहले मेरी शादी तय हुई थी...और उसी सिलसिले में ससुराल वाले मुझे देखना चाहते थे...मेडिकल कॉलेज में अपने बैच में मैं अकेली लड़की थी...जिसका किसी से अफेयर नहीं था...और घर से भी कोई दबाव नहीं था...मैं जिसे पसंद करती घरवाले शादी के लिए राजी हो जाते...लेकिन यह काम मैंने घरवालों पर ही छोड़ दिया था...जब मैं आप से मिली तो...लगा काश आपसे पहले भेंट हो गयी होती...लेकिन देर हो गयी थी...फिर भी मैंने आपको जी भर कर देखा...आपको महसूस किया...और उस वक्त हर लम्हे को एंज्वाय किया...मैनेजराइन चाची के यहां लोगों ने मुझे देखा...पसंद किया...और शादी हो गयी...मैं डेंटिस्ट हूं...और मेरे पति कार्डियोलॉजिस्ट हैं...हम दोनों की अच्छी मैरिड लाइफ है...मैंने अपने पति से आपके बारे में बताया भी...और उन्होंने कहा कि कभी साथ मिलेंगे...
आपकी एक वेलविशर
चंदा...
मुझे याद है...जिस दौर में चंदा से मेरी भेंट हुई उन दिनों मैं बहुत परेशान रहा करता था...करियर को लेकर कई बार मैं डिप्रेशन का भी शिकार हो जाया करता था...बीमारी की वजह से समझ में नहीं आता कि क्या करूं...पढूंगा नहीं तो करूंगा क्या...बुआजी के यहां तो गया ही यह सोचकर था कि जिस दिन फंक्शन होगा...रात को खुदकुशी कर लूंगा...इसलिए थोड़ी-थोड़ी खरीद कर ढेर सारी नींद की दवाएं मैंने जुटा ली थीं...लेकिन चंदा से हुई मुलाकात ने मेरा इरादा बदल दिया...मुझे जिंदगी खूबसूरत नजर आने लगी...उस मुलाकात ने मुझे सिखा दिया कि जीने का बहाना मिल जाए...तो जिंदगी बेहद हसीन हो जाती है...
चिट्ठी पढ़ने के साथ ही सारी यादें ताजा हो गयीं...यह भी याद आया कि जिस दिन उससे भेंट हुई थी...वो तारीख 14 फरवरी थी...ये बात तब की है जब वैलेंटाइन डे का इतना प्रचलन नहीं था...अब जरूर बढ़ गया है...आप सभी को...(चंदा तुम्हे भी...)...हैपी वैलेंटाइन डे...

  • शेखर

12 comments:

  1. शेखर जी, चंद्रमुखी तो हर बार ज़िंदगी लेकर आती है। कोई उसे पहचान जाता है और कोई चूक जाता। देवदास से देव डी तक कुछ ऐसा ही सिलसिला रहा है। शुक्र है कि अपनी चंदा में आपको ज़िंदगी की राह मिल गई और हमसभी को आप और आपकी अनमोल लव स्टोरी।

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  2. ये ब्लाग कमाल का है...फिल्म के लिये इससे बहुत मदद मिलेगी...लोग पढेंगे....

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  3. mrigank sir
    itane saalon bad shaadi karne ka raj ab pata chala. khair dil ko chchu lene wali prem kahani hai. ise hi kahten hain pahali nazar ka pyar.apani is story ke jariye apne is baat ko bhi siddh kar diya ki sachcha pyar hamesha jeevan ko samridh karta hai. aur har koi usko samman ki dristi se dekhta hai. chahe premika ka pati hi kyon na ho.......mahendra misra

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  4. wah, mrigankajee!
    pura bharosa ba ki chand ke anjoria near bejod hoihen raur chanda.

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  5. mrigankajee,
    aapke romantic mijaj ka to thah lena bhi mushkil hai sahab

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  6. Bhaiya mujhe to nahin lagta ki aisi story jo emotions ke har baandh ko torte hue dil ko choo de wo aapke alawa koi aur likh sakta hai...u know what while i was reading i could actually imagine the whole sequence...aisa lag raha tha ki vo saari cheezein main saamne dekh raha houn..hats off to you...really i dont ve any words to complement this story...

    Best regards

    PS : please accept my apology for calling it a story..

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  7. Beauty lies in the eyes of the beholder. congrates for this true story. With a lovely flying kiss to the lover of the story.

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  8. मृगांक जी, माफी चाहता हूं। इसे पढ़ने में मैंने काफी देर कर दी। पर आपने लिखा बहुत अच्छा है। वैसे आपने भी बताते-बताते बहुत देर कर दी।

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  9. i 2 remember my dhanno.....

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  10. मृगांक सर, बहुत खूबसूरत स्टोरी है. काफी समय बाद कुछ रोमांटिक पढ़ा. अच्छा लगा.

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